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Showing posts from March, 2014

नशा

जाने किस नशे में गुम होकर खुद ही से दूर हो गया मैं ज़िन्दगी के उलझे पन्नों में दिल की कलम को कहीं भूल गया मैं रौशनी थी खूब मेरे आस पास आँखें ही न खुल पायीं मेरी सोया था मैं खुश था कितना यूँ जागते ही ज़िन्दगी से मुलाकात हो गयी कुछ ऐसा है इस नशे का असर एहसासों में फर्क ही नहीं कर पाता अब दौड़ता हुआ सा दिखता हूँ खुद को रुकता हु तो अक्स दौड़ने लगता है, ठहरता हूँ तो सांस रुक सी जाती है आँखों के बंद होने और खुलने में फर्क महसूस नहीं होता अब दिन भर एक गहरी नींद में सपनों से दूर रहकर जागता हूँ जब आँखें बंद और सपनों की दुकान खुल जाती है