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हक़

कल नये घर में घुसा तो देखा  कुछ पंछियों ने एक घोंसला बना रखा था। घर साफ़ किया तो हटाना पड़ा उसे  भई आख़िर घर तो मेरा ही था… खिड़की के पास एक कुर्सी लगा कर  चाय की चुस्की लेते हुए बाहर देखा… दो मायूस पंछियों को नज़र अन्दाज़ कर,  खुश हुआ जब अपने आस पास और भी बनी नयी इमारतों को देखा।  इन इमारतों से पहले यहाँ  कुछ खेत और बहुत से पेड़ थे शायद   वो पंछी दोनों बाहर से  यही याद दिलाना छह रहे थे… शायद । एक लंबी साँस ले कर अख़बार उठाया  सरकार ने किसी ज़मीन को अपना बता कर बड़े हक़ से बुलडोज़र चलाया  फिर खबर थी किसी देश की जिसने हल्ला बोल कर  किसी और देश की ज़मीन पर अपना हक़ जताया  और फिर आस पास ही की खबरों में  कुछ लोग दबी आवाज़ में तो कुछ बहुत शोर से कुछ कहना चाह रहे थे, ख़ुद को इस देश का और कुछ लोगों को  बाहर वाला बता रहे थे । अब कौन बाहर वाला है और किसका है हक़  ये कैसे पता चलता है? वक़्त में जितना पीछे चलते जाओ  हर कदम नज़रिया बदलता रहता है…